लहसुन को भूल गए कार-ओ-बारी



बड़ी काबिले गौर बयान दी 'कारोबारी' बंधु ने. आगे का कोई मतलब समझने से पहले जरा कारोबार का कोट('') समझिए, ये प्याज का भंडारण करने वाले कारोबारी नहीं, कार में बार लगाने वाले हैं. अब भाई जान फिल्म सिटी के हों, या फिर किसी और 'मायानगरी' के बात बड़े पते की कह दी. दिल में चुभ कर अटक गई उनकी बात. अब निकाल रहा हूं, तो मीठी मीठी सी सिहरन हो रही है.

मौका बड़ा नहीं था, रोज की तरह रास्ते से सही सलामत ही जा रहे थे, टाइम तो 'दिव्य अवस्था' में जाने का हो ही गया था, अरे भाई, हफ्ते में एक दिन तो ये 'अवस्था' बनती ही है. तो बंधु जी उस शाम जरा जल्दी निपटा लिए 'प्रोग्राम'. फंडा साफ है, कार अपनी है तो 'बार' के लिए किसी और दुकान क्या फेरी लगाना. जब चाहो, जब गई महफिल. पेड़ के नीचे अंधेरे कोने में...वो एफएम से आ रही नीली पीली ससुरी किसी डिस्को की टिमटाम को हलकान करती है.

अब इससे ज्यादा महफिल की जिक्रा क्या करनी. समझदार के लिए आनंद का इशारा काफी होता है. कहानी में ट्विस्ट तो तब आया, जब कार में 'बार' समेत एक जेंटिल मैन मिल गए. बीच सड़क पर मैसेज देखते हुए, या कि एमएमएस देखते हुए. दीदार चाहे जिसका कर रहें हो, बीच सड़क पर सुध बुध खोए हुए हैं, कुछ ऐसे कि मोड़ पर कनफ्यूजन क्रियेट हो जाए, कि इनके दायें से पास करें, कि बाएं से. बंधु को गुस्सा तो इतना आया कि बीच में ही घुसेड़ दें...

लेकिन कार के बार में इतनी भी हिम्मत नहीं, कि इतना हिंसक बुला दे. जुबानी तीरबाज तो भाई साहब स्वभाव के है, कुछ दूर आगे तमाक से कार रोककर मुड़ गए पीछे और माथा पीट लिए-
कहने लगे-
भाई साहब,
इतनी अजूबी चीज, कितनी आसानी से समझा रहे हैं.
'समझदारों' की फिल्मसिटी जैसी जगह भी मुर्ख रहते हैं.
कहा तो हमें ज्याता है, कार में बार लगाए घूमते हैं.
यहां तो ये जनाब हमसे ज्यादा नशे में लगते हैं.

बंधु ने पूरा जुमला काढ़ दिया.मुखातिब हो गए मुझसे अपनी चिर परिचित व्यंग्यवाणी में-
-भाई जान, आज का दिन ही खराब है. चैनल पर दिन भर प्याज प्याज हो रहा है. रहा है मैंने लहसुन की याद क्या दिला दी, मेरी तो लेने पर उतर आए लोग.
- अरे, मियां, आपने क्या बात करती, लहसून खाता कौन है. लहसुन के बिना तो सबका काम चल जाए, बिना प्याज के आजकल क्या बनता है,
-लेकिन महोदय जी, लहसुन भी तो चालीस पचास से तीन सौ रुपये के पार पहुंच गया है. जरा इसका इनफ्लेशन परसेंटेज देखिए. अगर, प्याज के दाम तीस पैंतिस से सत्तर अस्सी हुआ तो पूरी सरकार सिर पर उठा ली, लहसुन के प्रति भी तो फर्ज बनता है.
बंधु बड़े दुखित स्वर में सुना रहे थे मुझे प्याज लहसुन से भेदभाव की पीड़ा. कहने लगे, मैंने तो जैसे गुस्ताखी कर दी थी भाई जान.मेरे जवाब से महोदय जी को जैसे लहसुन लग गया.
-मियां, लेकिन ये भी तो देखिए, लहसुन खाता कौन है भाई जी, जैन, ब्राम्हण जैसे कई बड़े पंथ हैं, जो लहसुन के नाम से तौबा तौबा करते हैं. इस शहर में जो बड़े खरीददार हैं, वो तो अमूमन छूते ही नहीं. यानी मार्केट का मालदार हिस्सा तो लहसुन से अछूती है. तो खपत कहां होती है. कुछ बोलने से पहले जरा इकनॉमी का भी ख्याल किया कीजिए...है कि नहीं.
-लेकिन महोदय जी, मनाही तो लहसुन के साथ प्याज की भी है. इस पैमाने से तो 'मेन मार्केट' में प्याज की भी खपत नहीं होनी चाहिए, यहां तो मारामारी मची है. और आपको पता है, ये किल्लत भी 'मेन मार्केट' के खिलाड़ियों की देन है. एक दिन में किलो पर 50 रुपये का मुनाफा तो यही बटोर रहे हैं. लेकिन हम चिला रहे हैं महंगाई महंगाई, जैसे, प्याज की लागत मूल्य बढ़ गई हो, दूसरी चीजों की महंगाई से तंग आकर किसानों ने ठान ली हो,कि हम भी अब महंगे बेचेंगे. उन्हें तो आज भी 10 बार रुपए ही एक किलो के मिलते होंगे. ये तो सर महंगाई नहीं, ये तो लूट है न.
-तो आपके कहने का मतलब, हम खबर चलानी छोड़ दे, सरकार को न घेरें. क्या कर रही है सरकार. यहां पब्लिक की इतनी मुश्किल है, कि सारा पूरे लंच डिनर का जायका खराब हो रहा है. और वो पवार है कि कह रहा है- तीन हफ्ते में हालत समान्य होगी.
-महदोय जी, मैं भी यही कह रहा हूं, ऐसी लूट नहीं मचनी चाहिए, सरकार को सख्ती करनी चाहिए. गोदाम भरने के खिलाफ कड़ी सजा के प्रावधान करनी चाहिए. मैं तो ये कह रहा हूं, ये सिर्फ प्याज के लिए ही क्यों, लहसुन के लिए क्यों नहीं. ये तो पांच गुनी महंगी हो गई है पिछले 1 महीने में.
-तौबा तौबा, आप फिर से लहसुन के पीछे पड़ गए. अब छोड़िए भी ज्यादा मत छीलिए, हाथ से बदबू आने लगेगी.
बंधु का दर्द अपने चरम पर बयां हो रहा था. लहसुन छिलने की बात पर सबके ठहाके छूट पड़े, महोदय जी के एक बैचमेट ने थोड़ी सी चुटकी ले ली...
-अरे भाई जान आपने भी तो हद कर दी, बाबा मना कर रहे हैं, और आप लहसुन की बात किए जा रहे हैं. जैसे चिढ़ा रहे हैं. बाबा लहसुन खाते ही नहीं, खबर बनाए.

इस बात पर पूरा दफ्तर हंसने लगा. बाबा भी मंद मंद मुस्कर रहे थे. कार में बैठे मैं और बंधु जी भी इस चुटकी पर चुहचुहाने लगे. साला, बात कारोबार से निकली थी, और लहसुन पर खत्म हुई. दिव्यअवस्था का तो सत्यानाश होना ही था.

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